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रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस

रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा   :  मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस
रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एस.एम.एस. -- -- -- ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------- ट्रेन में आने वाली दिक्कतों संबंधी यात्रियों की शिकायत के लिए रेलवे ने एसएमएस शिकायत सुविधा शुरू की थी। इसके जरिए कोई भी यात्री इस मोबाइल नंबर 9717630982 पर एसएमएस भेजकर अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है। नंबर के साथ लगे सर्वर से शिकायत कंट्रोल के जरिए संबंधित डिवीजन के अधिकारी के पास पहुंच जाती है। जिस कारण चंद ही मिनटों पर शिकायत पर कार्रवाई भी शुरू हो जाती है।

जनवरी 06, 2011

लगी खेलने लेखनी सुख-सुविधा के खेल , फ़िर सत्ता की नाक में डाले कौन नकेल…?


"आजाद भारत में गुलाम पत्रकार" शीर्षक से लिखी गई  गंगा सहाय मीणा की रिपोर्ट यहाँ प्रकाशित है । देश की तमाम जनता प्रजातंत्र के चौथे खम्बे से क्या अपेक्षा रखती आई है और कब-कब वह कहाँ-कहाँ  उसे कितना खरा पाई है । पढ़िए यह रिपोर्ट जिसे हमने शीर्षक दिया है - "लगी खेलने लेखनी सुख-सुविधा के खेल , फ़िर सत्ता की नाक में डाले कौन नकेल…?"
आज के पत्रकार लिख रहे हैं कि 'ठण्‍ड से इतने मरे', मानो इस साल पहली बार अचानक से ठण्‍ड पडी हो और प्राकृतिक आपदा में लोग मर गए हों. आज के पत्रकारों से 100 साल पुराने पत्रकार ज्‍यादा अच्‍छे थे. वे ब्रिटिश शासन के दमन और पाबंदियों के बावजूद अपने अखबारों में स्पष्‍ट उल्‍लेख करते थे कि लोग किन स्थितियों में रह रहे हैं और उनकी मौत के लिए कौन जिम्‍मेदार है. 1905 के 'भारत मित्र' में 'एक दुराशा' शीर्षक से बालमुकुन्‍द गुप्‍त लिखते हैं (एक बार पूरे उद्धरण को तब के साथ आज के संदर्भ में भी पढें)-
''नगर जैसा अंधेरे में था, वैसा ही रहा, क्‍योंकि उसकी असली दशा देखने के लिए और ही प्रकार की आंखों की जरूरत है. जब तक यह आंखें न होंगी, यह अंधेर यों ही चलता जावेगा... इस नगर में लाखों प्रजा भेडों, सुअरों की भांति सडे-गंदे झोंपडों में पडी लोटती है. उनके आसपास सडी बदबू और मैले सडे पानी के नाले बहते हैं, कीचड और कूडे के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं. उनके शरीर पर मैले-कुचैले फटे चिथडे लिपटे हुए हैं. उनमें से बहुतों को आजीवन पेट भर अन्‍न और शरीर ढांकने को कपडा नहीं मिलता. जाडों में सर्दी से अकड कर रह जाते हैं और गर्मी में सडकों पर घूमते तथा जहां-तहां पडते फिरते हैं. बरसात में सडे सीले घरों में भींगे पडे रहते हैं. सारांश यह है कि हरेक ऋतु की तीव्रता में सबसे आगे मृत्‍यु का पथ वही अनुगमन करते हैं. मौत ही एक है जो उनकी दशा पर दया करके जल्‍द-जल्‍द उन्‍हें जीवन रूपी रोग के कष्‍ट से छुडाती है.
... इसी कलकत्‍ते में इसी इमारतों के नगर में माई लार्ड प्रजा में हजारों आदमी ऐसे हैं, जिनको रहने के लिए सडा झोंपडा भी नहीं है. गलियों और सडकों पर घूमते-घूमते जहां जगह देखते हैं, वहीं पड रहते हैं. पहरे वाला आकर डण्‍डा लगाता है तो सरक कर दूसरी जगह जा पडते हैं. बीमार होते हैं तो सडकों पर ही पडे पांव पीट-पीटकर मर जाते हैं. कभी आग जलाकर खुले मैदान में पडे रहते हैं. कभी-कभी हलवाइयों की भट्टी से चिमटकर रात काट देते हैं. नित्‍य इतनी दो चार लाशें जहां-तहां से पडी हुई पुलिस उठाती है. भला माई लार्ड तक उनकी बात कौन पहुंचावे? दिल्‍ली दरबार में भी, जहां सारे भारत का वैभव एकत्र था, सैंकडों ऐसे लोग दिल्‍ली की सडकों पर पडे दिखाई देते थे, परन्‍तु उनकी ओर देखने वाला कोई न था. यदि माई लार्ड एक बार इन लोगों को देख पाते तो पूछने को जगह हो जाती कि वह लोग भी ब्रिटिश राज के सिटीजन हैं या नहीं? यदि हैं तो कृपापूर्वक पता लगाइए कि उनके रहने के स्‍थान कहां हैं और ब्रिटिश राज्‍य से उनका क्‍या नाता है? क्‍या कहकर वे अपने राजा और उसके प्रतिनिधि को संबोधित करें? किन शब्‍दों में ब्रिटिश राज को असीस दें, क्‍या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्‍य में हम अपनी जन्‍मभूमि में एक उंगल भूमि के अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीर को फटे चिथडे भी नहीं जुडे और न कभी पापी पेट को पूरा अन्‍न मिला, उस राज्‍य की जय हो ! उसका राजप्रतिनिधि हाथियों का जुलूस निकालकर सबसे बडे हाथी पर चंवर छत्र लगाकर निकले और स्‍वदेश में जाकर प्रजा के सुखी होने का डंका बजावे?''
(बालमुकुन्‍द गुप्‍त के श्रेष्‍ठ निबंध, संपादक- सत्‍यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2005, पृष्‍ठ-182-83)

(यह नोट लिखते वक्‍त यह बात दिमाग में है कि हमारे अधिकांश पत्रकार मित्रों को अपनी नौकरी बचाने के लिए खबरों को एक खास ढंग से पेश करना पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि गरीबी और शोषण की बात करने वाले पत्रकार किसी अखबार या चैनल में बहुत दिन टिक नहीं सकते हैं। 100 साल पहले भी लगभग यही स्थिति थी. सच के पक्ष में खडे होन वाले पत्रकारों के अपने पत्र हुआ करते थे और उन पर भी अंग्रेज सरकार पाबंदी लगा देती थी. इसके बावजूद गुलाम भारत में इतना जोखिम उठाने वाले पत्रकारों की परंपरा हमारे सामने है, इससे आज के पत्रकारों को प्रेरणा लेनी चाहिए.
गंगा सहाय मीणा
इस नोट की प्रेरणा दिलीप मंडल जी की इस टिप्‍पणी से मिली- ''जो पत्रकार लिख रहे हैं कि ठंड से इतने लोग मरे...उतने लोग मरे, वे या तो बेवकूफ हैं या फिर शब्दों का अर्थ बदलने की सत्ता की साजिश में हिस्सेदार। कोई भी आदमी ठंड से नहीं मरता, गरीबी से मरता है। अगर ठंड से लोग मरते तो अलास्का, आइसलैंड और स्कैंडेनेवियाई देशों में कोई जीवित नहीं बचता, जहां साल में कई महीने तक तापमान शून्य से काफी नीचे रहता है।'')
( हम आभारी है भाई गंगा सहाय मीणा के )

8 टिप्‍पणियां:

  1. आत्मावलोकन को बाध्य करती पोस्ट। पत्रकार अब ‘अपनी गरीबी’ मिटाने में लग गये हैं। उन गरीबों के बारे में लिखकर खुद गरीब हो जाने का खतरा है।

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  2. वर्तमान पत्रकारिता- अपनी चमडी बचाते हुए खबरों को पेश करने का प्रयास ही तो रह गई है ।

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  3. क्या रोशनाई आपकी गिरवी है कहीं पर,
    वरना गज़ल का शेर क्यों पिंजरे में कैद है.

    पोल खोल लेख....

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  4. ashutosh ji
    namaskar
    bikul satya kaha hai.....aaj sab yahi dekhne ko mil raha hai

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  5. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |

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  6. Ganga Sahay Meena Jee you have dared to unvail the bare truth.Congratulations and our very best wishes for your bright future.

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  7. Meena Ji ne haalat ko alag andaj me dekhne aur samajne ki rah dikhayee. Hame apna DHRISTIKON badalna hi hoga.

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  8. बहुत शुक्रिया आप सभी का. आज अचानक इस पोस्‍ट पर नजर चली गई.

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आपकी मूल्यवान टिप्पणी के लिए कोटिशः धन्यवाद ।

फ़िल्म दिल्ली 6 का गाना 'सास गारी देवे' - ओरिजनल गाना यहाँ सुनिए…

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