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रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस

रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा   :  मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस
रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एस.एम.एस. -- -- -- ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------- ट्रेन में आने वाली दिक्कतों संबंधी यात्रियों की शिकायत के लिए रेलवे ने एसएमएस शिकायत सुविधा शुरू की थी। इसके जरिए कोई भी यात्री इस मोबाइल नंबर 9717630982 पर एसएमएस भेजकर अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है। नंबर के साथ लगे सर्वर से शिकायत कंट्रोल के जरिए संबंधित डिवीजन के अधिकारी के पास पहुंच जाती है। जिस कारण चंद ही मिनटों पर शिकायत पर कार्रवाई भी शुरू हो जाती है।

जनवरी 27, 2011

अपील : श्री सांई विशेष


" भाग्योत्कर्ष " धर्म , आध्यात्म , वास्तु शास्त्र और ज्योतिष से जुड़ा नाम है जो प्रकाशन के क्षेत्र में कार्यरत है । रायपुर (छत्तीसगढ़) से भाग्योत्कर्ष का मासिक प्रकाशन होता है । हर आध्यात्मिक विषय पर भाग्योत्कर्ष का एक विशेष अंक 'वेद-पुराणों' पर आधारित होता है जो ग्लेज आर्ट पेपर प्रकाशित होता है । धार्मिक संस्थानों - आध्यात्मिक चाहत रखने वाले लोगों के हाँथों इसका वितरण धर्मावलंबियों - जिज्ञासु जनों के मध्य होता है ।
  अब तक भाग्योत्कर्ष के "अघोर" , "देवी शक्ति" , "समृद्धि" , "मंत्र शक्ति" ,  "रामसेतु" , "भगवान श्री परशुराम" , "राजिम कुंभ" , "जागरण" , "चेतना" जैसे अनेक महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए हैं ।
 सर्व विदित है कि यह विषय आज के तड़क-भड़क की दुनियाँ , ग्लेमर की दुनियाँ से अलग है लिहाजा इसका प्रकाशन कठिन ही नहीं दुष्कर होता है । प्रदेश के मुख्य मंत्री डॉ रमन सिंह इस बात को समझते थे , लेकिन यह बात उनके मातहतों को अच्छी नहीं लगी । प्रकाशन लम्बे समय से अवरुद्ध हो गया ।
भाग्योत्कर्ष ने पुनः हिम्मत जुटा कर शिरडी वाले सांई बाबा पर एक विशेष अंक के प्रकाशन की  तैयारी की है । बाबा के सक्षम भक्तों से सहयोग की अपेक्षा सहित यहाँ यह पोस्ट लगाई गई है । सहयोग केवल इतना कि इस अंक की प्रतियाँ अपनों - भक्तों के बीच वितरित करने के लिए अग्रिम क्रय कर प्रकाशन को सुलभ सुगम बनाने में मदद करें ।                                                                                                                                                                                                                - आशुतोष मिश्र / 094242 02729

जनवरी 26, 2011

शुभ कामनाएं


जनवरी 23, 2011

अपनी पवित्र गायों से द्रोह



यह जानकर शायद आपको झटका लगेगा कि हमने अपनी देसी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है, क्योंकि वे दूध कम देती हैं और इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है, लेकिन आज ब्राजील हमारी इन्हीं गायों की नस्लों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। ब्राजील भारतीय प्रजाति की गायों का निर्यात करता है, जबकि भारत घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए अमरीका और यूरोपीय प्रजाति की गायें आयात करता है। वास्तव में, तीन महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाति गिर, कंकरेज और ओंगोल की गायें जर्सी गाय से भी ज्यादा दूध देती हैं, यहां तक कि भारतीय प्रजाति की एक गाय तो होलेस्टेन फ्राइजियन जैसी विदेशी प्रजाति की गाय से भी ज्यादा दूध देती है। जबकि भारत अपने यहां दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए होलेस्टेन फ्राइजियन का आयात करता है।

अब जाकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के गर्व - गिर प्रजाति की गाय - को स्वीकार करने का निश्चय किया है। उन्होंने हाल ही में मुझे बताया कि उन्होंने उच्च प्रजाति की शुद्ध गिर नस्ल की गाय को ब्राजील से आयात करने का निश्चय किया है। उन्होंने यह भी कहा कि आयात की गई गिर गाय को भविष्य में "क्रॉस ब्रीडिंग प्रोग्राम" में इस्तेमाल किया जाएगा, ताकि राज्य में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा मिल सके। मैंने उन्हें बताया कि हाल ही में ब्राजील में दुग्ध उत्पादन प्रतियोगिता हुई थी, जिसमें भारतीय प्रजाति की गिर गाय ने एक दिन में 48 लीटर दूध दिया। तीन दिन तक चली इस प्रतियोगिता में दूसरा स्थान भी भारतीय नस्ल की गिर गाय को ही प्राप्त हुआ। इस गाय ने 45 लीटर दूध दिया। तीसरा स्थान आंध्र प्रदेश के ओंगोल नस्ल की गाय (जिसे ब्राजील में नेरोल कहा जाता है) को मिला। उसने भी एक दिन में 45 लीटर दूध दिया।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत विकास की गलत नीति अपनाकर चल रहा है। यदि हमें अपने यहां गायों की नस्लों का विकास करना है, तो हमें कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, अपने यहां जो उच्च उत्पादकता वाली गायें हैं, उनसे क्रॉस ब्रिडिंग कराने का बड़ा वैज्ञानिक महत्व है।

आयातित प्रजातियों के प्रति आकर्षण भारतीय डेयरी उद्योग के लिए घातक सिद्ध हुआ है। हमारे योजनाकारों व नीति निर्माताओं ने देसी नस्लों को पूरी तरह आजमाए बिना ही विदेशी नस्लों को आगे बढ़ाया है। भारतीय नस्ल की गायें स्थानीय माहौल में अच्छी तरह ढली हुई हैं, वे भीषण गर्मी झेलने में सक्षम हैं, उन्हें कम पानी चाहिए, वे दूर तक चल सकती हैं, वे स्थानीय घासों के भरोसे रह सकती हैं, वे अनेक संक्रामक रोगों का मुकाबला कर सकती हैं। अगर उन्हें सही खुराक और सही परिवेश मिले, तो वे उच्च दुग्ध उत्पादक भी बन सकती हैं।

केवल ज्यादा दुग्ध उत्पादन की बात हम क्यों करें, हमारी गायों के दूध में ओमेगा-6 फैटी एसिड्स होता है, जिसकी कैंसर नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विडंबना देखिए, ओमेगा-6 के लिए एक बड़ा उद्योग विकसित हो गया है, जो इसे कैप्सूल की शक्ल में बेच रहा है, जबकि यह तत्व हमारी गायों के दूध में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है। गौर कीजिएगा, आयातित नस्ल की गायों के दूध में ओमेगा-6 का नामोनिशान नहीं है। न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पश्चिमी नस्ल की गायों के दूध में "बेटा केसो मॉर्फिन" नामक मिश्रण होता है, जिसकी वजह से अल्जाइमर (स्मृतिलोप) और पार्किसन जैसे रोग होते हैं।

इतना ही नहीं, भारतीय नस्ल की गायों का गोबर भी आयातित गायों के गोबर की तुलना में श्रेष्ठ है। भारतीय गायों का गोबर अर्घ-कठोर होता है, जबकि आयातित गायों का गोबर अर्घ-तरल। इसके अलावा देसी गायों का गोबर ऎसा पंचागभ्य तैयार करने के अनुकूल है, जो रासायनिक खादों का बेहतर विकल्प है। कई शोध बताते हैं कि गो मूत्र भी औषधीय प्रयोग में आता है। गो-मूत्र और एंटीबायोटिक के एक औषधीय मिश्रण का अमरीका में पेटेंट कराया गया है। गो-मूत्र में मौजूद कारगर तत्वों के लिए और कैंसर रोधी कारक के रूप में भी गो-मूत्र का पेटेंट हुआ है।

एक ऎसा देश, जो अपने प्राकृतिक संसाधनों पर भी शायद ही गर्व करता है, वहां यह उम्मीद करने का सवाल ही नहीं उठता कि पवित्र गायों का वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से विकास किया जाता। जब हमने अपने पशुधन के मोल को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जब हमने अपने पशुधन की क्षमता बढ़ाने के तमाम प्रयासों को धता बता दिया, तब हमारे देसी पशुधन को विदेशी धरती पर शानदार पहचान मिल रही है!

पिछली सदी के मध्य में ब्राजील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था। ब्राजील गई भारतीय गायों में गुजरात की गिर और कंकरेज नस्ल और आंध्र प्रदेश की ओंगोल नस्ल की गाय शामिल थी। इन गायों को मांस के लिए ब्राजील ले जाया गया था, लेकिन जब ये गायें ब्राजील पहंुचीं, तो वहां लोगों को अहसास हुआ कि इन गायों मे कुछ खास बात है और वे दुग्ध उत्पादन का बेहतर स्रोत हो सकती हैं। भारतीय गायों को अपने यहां के मौसम के अनुरूप पाकर ब्राजील जैसे देशों ने उनकी नस्लों का विकास किया और भारतीय गायों को अपने यहां प्रजनन परियोजनाओं में आदर्श माना। भारतीय पशुपालकों और भारतीय पशु वैज्ञानिकों ने अगर देसी गायों की उपेक्षा नहीं की होती, तो हमारी गायों का इतिहास कुछ और होता। तब हमारी पवित्र गायों की सचमुच पूजा हो रही होती। हमारी गायें सड़कों पर लाचार खुले में घूमती न दिखतीं।

अगर भारत ने विदेशी जहरीली नस्लों के साथ क्रॉस ब्रिडिंग की बजाय अपनी ही गायों के विकास पर ध्यान दिया होता, तो हमारी गायें न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक साबित होतीं, बल्कि हमारे यहां खेती और फसलों की स्थिति भी व्यावहारिक और लाभदायक होती। मरूभूमि के अत्यंत कठिन माहौल में रहने मे सक्षम राजस्थान में पाई जाने वाली थारपारकर जैसी नस्ल की शक्तिशाली गायें उपेक्षित न होतीं। आज दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए आयातित नस्लों पर विश्वास करने से ज्यादा विनाशकारी और कुछ नहीं हो सकता।

देविन्दर शर्मा
कृषि व खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ
राजस्थान पत्रिका से साभार

जनवरी 16, 2011

आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी की 31 मंज़िला ईमारत का निर्माण अवैध , ईमारत तोड़ने की बात : गर हम डूबे तो तुम्हें भी ले डूबेंगे सनम


मुंबई स्थित आदर्श हाउसिंग सोसायटी में करगिल युद्ध लड़ने वाले वीर जवानों उनके परिजनों को फ़्लैट मिले , यह योजना थी , जिस पर इस देश के कर्णधार नौकरशाहों और नेताओं के रिश्तेदारों की बुरी नजर पड़ गई , फ़िर क्या था जो ग्रहण लगा कि आज यह ईमारत तोड़ने की बात कर रहे हैं बेशर्म नेता , वे अब इसे भ्रष्टाचार की ईमारत कह रहे हैं क्योंकि अब इसमें उन्हें- उनके रिश्तेदारों को फ़्लैट जो नहीं मिल पा रहा है । हुई न वही बात कि गर हम नहीं खा पायेंगे तो  खाने की सजी सजाई थाली में पानी डाल देंगे । किसी को भी नहीं खाने देंगे ।   गर हम डूबे तो तुम्हें भी ले डूबेंगे सनम ।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने रविवार (16 जनवरी 2011) को अपने बयान में कहा, "यदि दूसरा विकल्प चुना जाता तो ईमारत के अवैध निर्माण को जायज़ ठहराए जाने के बराबर होता. तीसरे विकल्प पर चर्चा हुई पर उसका मतलब भी यही होता । इसलिए तथ्यों और परिस्थितियों पर चर्चा के साथ-साथ विश्लेषण करने के बाद मेरा निर्णय है कि पहले विकल्प (यानी पूरी इमारत को गिराने) का फ़ैसला किया जाए ।"

भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने पाया है कि विवादों में घिरी मुंबई स्थित आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी की 31 मंज़िला इमारत का निर्माण अवैध तरीके से, अनिवार्य इजाज़त लिए बिना किया गया और पूरी ईमारत को गिरा दिया जाना चाहिए ।
मुंबई स्थित आदर्श हाउसिंग सोसायटी तब विवादों में घिर गई जब पाया गया कि इसकी इमारत के निर्माण में अनेक स्थानीय नियमों और क़ानूनों का उल्लंघन हुआ था । यही नहीं, कई प्रभावशाली अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं के रिश्तेदारों को इस ईमारत में फ़्लैट दिए गए । पूरे मामले ने राजनीतिक तूल पकड़ा और कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस की सरकार के उस समय मुख्यमंत्री रहे आशोक चव्हान को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा । अब मंत्रालय का कहना है कि उसके पास तीन विकल्प थे. पहला विकल्प ये था कि कोस्टल रेगुलेशन ज़ोन (तटीय नियमन क्षेत्र - 1991) की इजाज़त के बिना अवैध तौर पर बनाई गई पूरी ईमारत को गिरा दिया जाए । सवाल उठता है खर्च किये गये रुपयों के लिए जिम्मेदार कौन होगा ? एक दिन में तो यह इमारत बनी नहीं होगी , क्या कर रहे थे जिम्मेदार अधिकारी तब, जब यह ईमारत बन रही थी । क्यों न उन अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की जाए जिनके जिम्मे यह दायित्व होता है कि ऐसे निर्माण न हों । सबसे बड़ी बात यदि सब कुछ  नौकरशाहों और नेताओं के हिसाब से  सब कुछ चल रहा होता , उनके रिश्तेदारों को फ़्लैट मिला हुआ होता तो क्या ये नेता ऐसा निर्णय लेते ? आज हर बड़े शहर में सैकड़ों अवैध बहुमंजिला ईमारतें सीना ताने खड़ी हैं ,क्या उन्हें गिराने कोई मंत्री - नेता सामने आयेगा ।  पर्यावरण के नियमों का खुल्ला उल्लंघन देश में हजारों-लाखों उद्योग कर रहे हैं , क्या कर रहा है जय राम रमेश का पर्यावरण विभाग उनके खिलाफ़ ? रायपुर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है , जहाँ समूची सत्ता इसी काम में जुटी देखी जा सकती है , आम आदमी सरकार के ऐसे कार्यों के विरुद्ध अदालत की शरण ले रहे हैं ।
मेरा मानना है पर्यावरण मंत्रालय का ऐसा सुझाव करगिल के शहीदों का अपमान है । देश का अपमान है । इसके विरूद्ध जनता की आवाज बुलंद होनी ही चाहिए । यह पूरी ईमारत वीर सपूतों के परिजनों को जो जरूरतमंद हों उन्हें दिया जाना चाहिए , पर्यावरण ही नहीं अन्य सभी संबंधित मंत्रालयों को जिनका इससे संबंध है आगे आकर स्वीकृति प्रपत्र ईमारत को बचाने के लिए देना चाहिए । साथ ही जो लोग इस काण्ड से जुडे हैं उन्हें ऐसी सजा मिलनी चाहिए जिससे दूसरे सबक लें ।  

जनवरी 14, 2011

मकर संक्रांति की शुभ कामनाएं - बधाईयाँ ।

 

जनवरी 11, 2011


जनवरी 07, 2011

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान…


मृत विधायक राजकिशोर और आरोपी महिला रूपम पाठक
वो मेरी बेटी का इज्जत लूटना चाहते थे। उसका पीए फोन पर लगातार धमकियां देता था। विधायक हत्याकांड में दोषी रूपम पाठक ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है। रूपम का कहना है कि, राजकिशोर केसरी का पीए विपिन उसको फोन पर बेटी के साथ शारीरिक संबंध बनाने की बात कहता था। उसने मेरी इज्जत तो बर्बाद कर ही दी, अब बेटी की इज्जत बर्बाद करना चाहते थे। इसलिए मैंने उसे मार दिया।
दैहिक शोषण के खिलाफ़ आवाज उठी , पुलिस में रिपोर्ट हुई , रिपोर्ट वापस लेने दबाव बना , रिपोर्ट वापस भी हो गई , पीड़ित-आक्रोशित महिला ने चाकू से दोषी को मारा , दोषी की मौत हो गई । राज्य के मुख्यमंत्री ने तुरंत ही यह घोषणा कर दी की पूरे राजकीय सम्मान के साथ मृत विधायक का अंतिम संस्कार किया जायेगा । इस पूरी घटना से लगा कि दो ही वर्ग है । एक राजनेताओं का , राजनीतिज्ञों का दूसरा आमजनता का । हर हाल में सम्मान के हकदार ये नेता ही हैं चाहे वे कूछ भी कर लें । सम्मान जनता का तो है ही नहीं । एक महिला ने इतना बड़ा कदम किन हालातों में , क्यों और कैसे उठाया , यह सोचने - समझने की जरूरत ही नहीं , सारी हमदर्दी राजनीति के साथ  है तभी तो बिना देर किये मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी कि मृत विधायक का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जायेगा । मर गई संवेदना , कि भरी भीड़ में उस महिला ने आखिर ऐसा किया क्यों ? उसकी आवाज क्यों और कैसे दबा दी गई ? राजनीति कहाँ आकर खड़ी है ? तमाम सवाल हैं जिसकी मानो किसी को परवाह ही नहीं है। उल्टा समाज के ठेकेदारों - मर्दों ने उस अकेली महिला को सरे आम पीट कर मानो कानून की रक्षा की । चापलूसी का उत्कृष्ट नमूना पेश किया । राज्य शासन को शायद इन्हें भी पुरस्कृत करना चाहिए । भूल गये मुख्यमंत्री जी इस आशय की घोषणाकरना शायद ।
 बिहार में सत्ताधारी भाजपा के स्थानीय विधायक राजकिशोर केसरी की एक महिला ने कथित तौर पर चाकू मारकर हत्या कर दी।
बिहार के पुलिस महानिदेशक नीलमणि ने बताया कि मंगलवार सुबह पूर्णिया के विधायक केसरी अपने घर पर आम लोगों से मिल रहे थे। उसी दौरान रूपम पाठक नामक एक महिला ने अचानक उन पर चाकू से हमला कर दिया। नीलमणि ने बताया कि हमले के बाद खून से लथपथ केसरी को पास के अस्पताल में भर्ती कराया, जहाँ चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।घटना के बाद विधायक के घर पर मौजूद लोगों ने आरोपी महिला को बुरी तरह पीटा और बाद में उसे पुलिस के हवाले कर दिया।
आरोपी महिला ने छह महीने पहले विधायक केसरी के खिलाफ यौन शोषण का आरोप लगाया था।भाजपा विधायक की मौत से स्तब्ध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मामले की उच्चस्तरीय जाँच कराने के निर्देश पुलिस महानिदेशक को दिए और विधायकों से मिलने से पहले लोगों की समुचित तलाशी सुनिश्चित करने को कहा।
नीतीश ने उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को तुरंत घटनास्थल पर रवाना होने के निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि केसरी की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ की जाएगी। उन्होंने पूर्णिया में विधायक समर्थकों और लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की और भरोसा दिलाया कि दोषी को समुचित सजा दिलाई जाएगी।
मुझे फाँसी दे दीजिए -
विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या की आरोपी 40 वर्षीय महिला रूपम पाठक ने कहा है कि उसे फाँसी दे दी जाए। रूपम का इलाज कटिहार के एक अस्पताल में चल रहा है। अस्पताल में रूपम ने पत्रकारों से कहा कि वह दुष्ट है, शैतान है, पापी है, अन्यायी है। वह नहीं मर सकता। पूर्णिया के राजहंस पब्लिक स्कूल में शिक्षिका रूपम ने कहा कि उसे फाँसी दे दी जाती तो अच्छा होता।
सारे देश के लिये यह खबर एक नया सन्देश लेकर आयी है।  मौके पर तैनात पुलिस वालों ने रूपम को घटनास्थल पर पकड लिया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया।
घटनास्थल पर उपस्थित अधिकांश लोगों को और विशेषकर पुलिसवालों को इस बात की पूरी जानकारी थी कि विधायक पर क्यों हमला किया गया है एवं हमला करने वाली महिला कितनी मजबूर थी। बावजूद इसके पुलिस वालों ने आक्रमण करने वाली  आरोपी महिला रूपम पाठक द्वारा किये गए आक्रमण के समय सुरक्षा गार्ड उसको नियन्त्रित नहीं कर सके और उसकी बेरहमी से पिटाई की, जिसका पुलिस को कोई अधिकार नहीं था। रूपम की पिटाई करने वाले पुलिस वालों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रकरण तक दर्ज नहीं किया गया है। जबकि रूपम के विरुद्ध हत्या का अभियोग दर्ज करने के साथ-साथ, रूपम पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध भी मामला दर्ज होना चाहिये था।
राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद यह बात सभी के सामने आ चुकी है कि इस घटना से पहले रूपम पाठक ने बाकायदा लिखित में फरियाद की थी कि राज किशोर केसरी, विधायक चुने जाने से पूर्व से ही गत तीन वर्षों से उसका यौन-शोषण करते रहे थे और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी कर रहे थे। जिसके विरुद्ध नीतिश कुमार प्रशासन से कानूनी संरक्षण प्रदान करने और दोषी विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने की मांग भी की गयी थी, लेकिन पुलिस प्रशासन एवं नीतिश सरकार कुमार ने रूपम पाठक को न्याय दिलाना तो दूर, किसी भी प्रकार की प्राथमिक कानूनी कार्यवाही करना तक जरूरी नहीं समझा। आखिर सत्ताधारी गठबन्धन के विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कैसे की जा सकती थी?
स्वाभाविक रूप से रूपम पाठक द्वारा पुलिस को फरियाद करने के बाद; विधायक राज किशोर केसरी एवं उनकी चौकडी ने रूपम पाठक एवं उसके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। सूत्र यह भी बतलाते हैं कि रूपम पाठक से राज किशोर केसरी के लम्बे समय से सम्बन्ध थे। जिन्हें बाद में रूपम ने यौन शोषण का नाम दिया है। हालांकि इन्हें रूपम ने अपनी नीयति मानकर स्वीकार करना माना है, लेकिन पिछले कुछ समय से राज किशोर केसरी ने रूपम की 17-18 वर्षीय बेटी पर कुदृष्टि डालना शुरू कर दिया था, जो रूपम पाठक को मंजूर नहीं था। इसी कारण से रूपम पाठक ने पहले पुलिस में गुहार की और जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो खुद ने ही विधायक एवं विधायक के आतंक का खेल खतम कर दिया!
रूपम पाठक ने जिस विधायक का खेल खत्म किया है, उस विधायक के विरुद्ध दाण्डिक कार्यवाही नहीं करने के लिये बिहार की पुलिस के साथ-साथ नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली संयुक्त सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। विशेषकर भाजपा इस कलंक को धो नहीं सकती, क्योंकि राजकिशोर केसरी को भाजपा ने यह जानते हुए भी टिकिट दिया कि राज किशोर केसरी पूर्णिया जिले में आपराधिक छवि के व्यक्ति के रूप में जाना जाता था। जिसकी पुष्टि चुनाव लडने के लिये पेश किये गये स्वयं राज किशोर केसरी के शपथ-पत्र से ही होती है।
पवित्र चाल, चरित्र एवं चेहरे तथा भय, भूख एवं भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का नारा देने वाली बिहार सरकार का यह भी एक चेहरा है, जिसे बिहार के साथ-साथ पूरे देश को ठीक से पहचान लेना चाहिये और नीतिश कुमार को देश में सुशासन के शुरूआत करने वाला जननायक सिद्ध करने वालों को भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। इससे उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि बिहार के जमीनी हालात कितने पाक-साफ हैं। जो सरकार एक महिला द्वारा दायर मामले में संज्ञान नहीं ले सकती, उससे किसी भी नयी शुरूआत की उम्मीद करना दिन में सपने देखने के सिवा कुछ भी नहीं है!
रूपम पाठक का मामला केवल बिहार, भाजपा, नीतिश कुमार या राजनैतिक ताकतों के मनमानेपन का ही प्रमाण नहीं है, बल्कि यह प्रकरण एक ऐसा उदाहरण है जो हर छोटे-बडे व्यक्ति को यह सोचने का विवश करता है कि नाइंसाफी से परेशान इंसान किसी भी सीमा तक जा सकता है। पुलिस, प्रशासन एवं लोकतान्त्रिक ताकतें आम व्यक्ति के प्रति असंवेदनशील होकर अपनी पदस्थिति का दुरूपयोग कर रही हैं और देश के संसाधनों का मनमाना उपयोग तथा दुरूपयोग कर रही हैं। सत्ता एवं ताकत के मद में आम व्यक्ति के अस्तित्व को ही नकार रही हैं।
ऐसे मदहोश लोगों को जगाने के लिये रूपम ने फांसी के फन्दे की परवाह नहीं करते हुए, अन्याय एवं मनमानी के विरुद्ध एक आत्मघाती कदम उठाया है। जिसे यद्यपि न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन रूपम का यह कदम न्याय एवं कानून-व्यवस्था की विफलता का ही प्रमाण एवं परिणाम है। जब कानून और न्याय व्यवस्था निरीह, शोषित एवं दमित लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं तो रूपम पाठक तथा फूलन देवियों को अपने हाथों में हथियार उठाने पडते हैं। जब आम इंसान को हथियार उठाना पडता है तो उसे कानून अपराधी मानता है और सजा भी सुनाता है, लेकिन देश के कर्णधारों के लिये और विशेषकर जन प्रतिनिधियों तथा अफसरशाही के लिये यह मनमानी के विरुद्ध एक ऐसी शुरूआत है, जिससे सर्दी के कडकडाते मौसम में अनेकों का पसीना छूट रहा है।
अत: बेहतर होगा कि राजनेता, पुलिस एवं उच्च प्रशासनिक अधिकारी रूपम के मामले से सबक लें और लोगों को कानून के अनुसार तत्काल न्याय देने या दिलाने के लिये अपने संवैधानिक और कानूनी फर्ज का निर्वाह करें, अन्यथा हर गली मोहल्लें में आगे भी अनेक रूपम पैदा होने से रोकी नहीं जा सकेंगी। समझने वालों के लिये रूपम एक चेतावनी है ।

जनवरी 06, 2011

लगी खेलने लेखनी सुख-सुविधा के खेल , फ़िर सत्ता की नाक में डाले कौन नकेल…?


"आजाद भारत में गुलाम पत्रकार" शीर्षक से लिखी गई  गंगा सहाय मीणा की रिपोर्ट यहाँ प्रकाशित है । देश की तमाम जनता प्रजातंत्र के चौथे खम्बे से क्या अपेक्षा रखती आई है और कब-कब वह कहाँ-कहाँ  उसे कितना खरा पाई है । पढ़िए यह रिपोर्ट जिसे हमने शीर्षक दिया है - "लगी खेलने लेखनी सुख-सुविधा के खेल , फ़िर सत्ता की नाक में डाले कौन नकेल…?"
आज के पत्रकार लिख रहे हैं कि 'ठण्‍ड से इतने मरे', मानो इस साल पहली बार अचानक से ठण्‍ड पडी हो और प्राकृतिक आपदा में लोग मर गए हों. आज के पत्रकारों से 100 साल पुराने पत्रकार ज्‍यादा अच्‍छे थे. वे ब्रिटिश शासन के दमन और पाबंदियों के बावजूद अपने अखबारों में स्पष्‍ट उल्‍लेख करते थे कि लोग किन स्थितियों में रह रहे हैं और उनकी मौत के लिए कौन जिम्‍मेदार है. 1905 के 'भारत मित्र' में 'एक दुराशा' शीर्षक से बालमुकुन्‍द गुप्‍त लिखते हैं (एक बार पूरे उद्धरण को तब के साथ आज के संदर्भ में भी पढें)-
''नगर जैसा अंधेरे में था, वैसा ही रहा, क्‍योंकि उसकी असली दशा देखने के लिए और ही प्रकार की आंखों की जरूरत है. जब तक यह आंखें न होंगी, यह अंधेर यों ही चलता जावेगा... इस नगर में लाखों प्रजा भेडों, सुअरों की भांति सडे-गंदे झोंपडों में पडी लोटती है. उनके आसपास सडी बदबू और मैले सडे पानी के नाले बहते हैं, कीचड और कूडे के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं. उनके शरीर पर मैले-कुचैले फटे चिथडे लिपटे हुए हैं. उनमें से बहुतों को आजीवन पेट भर अन्‍न और शरीर ढांकने को कपडा नहीं मिलता. जाडों में सर्दी से अकड कर रह जाते हैं और गर्मी में सडकों पर घूमते तथा जहां-तहां पडते फिरते हैं. बरसात में सडे सीले घरों में भींगे पडे रहते हैं. सारांश यह है कि हरेक ऋतु की तीव्रता में सबसे आगे मृत्‍यु का पथ वही अनुगमन करते हैं. मौत ही एक है जो उनकी दशा पर दया करके जल्‍द-जल्‍द उन्‍हें जीवन रूपी रोग के कष्‍ट से छुडाती है.
... इसी कलकत्‍ते में इसी इमारतों के नगर में माई लार्ड प्रजा में हजारों आदमी ऐसे हैं, जिनको रहने के लिए सडा झोंपडा भी नहीं है. गलियों और सडकों पर घूमते-घूमते जहां जगह देखते हैं, वहीं पड रहते हैं. पहरे वाला आकर डण्‍डा लगाता है तो सरक कर दूसरी जगह जा पडते हैं. बीमार होते हैं तो सडकों पर ही पडे पांव पीट-पीटकर मर जाते हैं. कभी आग जलाकर खुले मैदान में पडे रहते हैं. कभी-कभी हलवाइयों की भट्टी से चिमटकर रात काट देते हैं. नित्‍य इतनी दो चार लाशें जहां-तहां से पडी हुई पुलिस उठाती है. भला माई लार्ड तक उनकी बात कौन पहुंचावे? दिल्‍ली दरबार में भी, जहां सारे भारत का वैभव एकत्र था, सैंकडों ऐसे लोग दिल्‍ली की सडकों पर पडे दिखाई देते थे, परन्‍तु उनकी ओर देखने वाला कोई न था. यदि माई लार्ड एक बार इन लोगों को देख पाते तो पूछने को जगह हो जाती कि वह लोग भी ब्रिटिश राज के सिटीजन हैं या नहीं? यदि हैं तो कृपापूर्वक पता लगाइए कि उनके रहने के स्‍थान कहां हैं और ब्रिटिश राज्‍य से उनका क्‍या नाता है? क्‍या कहकर वे अपने राजा और उसके प्रतिनिधि को संबोधित करें? किन शब्‍दों में ब्रिटिश राज को असीस दें, क्‍या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्‍य में हम अपनी जन्‍मभूमि में एक उंगल भूमि के अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीर को फटे चिथडे भी नहीं जुडे और न कभी पापी पेट को पूरा अन्‍न मिला, उस राज्‍य की जय हो ! उसका राजप्रतिनिधि हाथियों का जुलूस निकालकर सबसे बडे हाथी पर चंवर छत्र लगाकर निकले और स्‍वदेश में जाकर प्रजा के सुखी होने का डंका बजावे?''
(बालमुकुन्‍द गुप्‍त के श्रेष्‍ठ निबंध, संपादक- सत्‍यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2005, पृष्‍ठ-182-83)

(यह नोट लिखते वक्‍त यह बात दिमाग में है कि हमारे अधिकांश पत्रकार मित्रों को अपनी नौकरी बचाने के लिए खबरों को एक खास ढंग से पेश करना पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि गरीबी और शोषण की बात करने वाले पत्रकार किसी अखबार या चैनल में बहुत दिन टिक नहीं सकते हैं। 100 साल पहले भी लगभग यही स्थिति थी. सच के पक्ष में खडे होन वाले पत्रकारों के अपने पत्र हुआ करते थे और उन पर भी अंग्रेज सरकार पाबंदी लगा देती थी. इसके बावजूद गुलाम भारत में इतना जोखिम उठाने वाले पत्रकारों की परंपरा हमारे सामने है, इससे आज के पत्रकारों को प्रेरणा लेनी चाहिए.
गंगा सहाय मीणा
इस नोट की प्रेरणा दिलीप मंडल जी की इस टिप्‍पणी से मिली- ''जो पत्रकार लिख रहे हैं कि ठंड से इतने लोग मरे...उतने लोग मरे, वे या तो बेवकूफ हैं या फिर शब्दों का अर्थ बदलने की सत्ता की साजिश में हिस्सेदार। कोई भी आदमी ठंड से नहीं मरता, गरीबी से मरता है। अगर ठंड से लोग मरते तो अलास्का, आइसलैंड और स्कैंडेनेवियाई देशों में कोई जीवित नहीं बचता, जहां साल में कई महीने तक तापमान शून्य से काफी नीचे रहता है।'')
( हम आभारी है भाई गंगा सहाय मीणा के )

जनवरी 04, 2011

'शहीद स्मारक' की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह : एक अच्छी लेकिन चिंताजनक खबर " देशबन्धु " से


रायपुर  जी ई रोड पर स्थित शहीद स्मारक भवन का भव्य निर्माण एक बड़ी उपलब्धि है। निर्माण समिति से जुड़े कार्यकारिणी निश्चित रूप से बधाई के पात्र तो हैं ही, विडम्बना यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रदेश सेनानियों को समर्पित इस भवन की सार्थकता का अब कोई मायने नहीं रह गया है।
13 अगस्त वर्ष 03 में अखिल भारतीय फ्रीडम फाइटर्स फेडरेशन के अध्यक्ष शशिभूषण वाजपेयी के मुख्य आतिथ्य में एवं छग प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की अध्यक्षता तथा सांसद पं. श्यामाचरण शुक्ल के विशेष आतिथ्य में स्मारक भवन का शुभार्पण हुआ था, तब सेनानियों ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि उन्हें अवसर पाते ही नेपथ्य में ढकेल दिए जायेंगे वे अपनी उपेक्षा को तो सहते आ रहे हैं, लेकिन स्मारक की दुर्दशा और अव्यवस्था पर उन्हें कड़ा एतराज है। शहीद स्मारक भवन का प्रबंधन जब से निगम के हाथों गया है, आय का स्रोत तो बढ़ा ही है, लेकिन आय स्रोत का एक धेला भी सेनानी समिति के फंड में नहीं जाता। वहीं भवन का रखरखाव भगवान मालिक है। चारों तरफ फैली गंदगी शाम होते ही असमाजिक तत्वों का डेरा अव्यवस्थित पार्किंग यहां तक कि संडास और मूत्रालय भी गंदगी और बदबू से भरे होते हैं। इस गुंबजनुमा सभागार एवं भवन काम्पलेक्स में रंग-रोगन नहीं हुए, सालों बीत गए। गौरतलब है कि इस भवन का निर्माण जिला प्रशासन, नगर पालिक निगम एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मदद से किया गया था। उस समय निर्माण समिति में स्व. कमल नारायण शर्मा, स्व. हरि ठाकुर, स्व. नारायण राव अंबिलकर, स्व. नारायण दास राठौर, धनीराम वर्मा, मोतीलाल त्रिपाठी, रणवीर सिंह शास्त्री जैसे सेनानियों के नेतृत्व का उल्लेखनीय योगदान रहा है।
जिस फ्रीडम फाइटर्स के नेतृत्व में शहीद स्मारक भवन में वर्षभर की गतिविधियों को संचालित कराया जाना था, वह आज दूर की कौड़ी हो गई है। राजधानी में गिनती के बचे-खुचे वयोवृध्द स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को आवश्यक बैठकें लेनी हो तो उन्हें कई सीढ़ियां पार करके सबसे ऊपर कोने के भवन में ढकेल दी जाती है। बताईये जिस भवन पर उनका पूरा अधिकार मिलना चाहिए था वहां उनका अपना कोई बैठक कक्ष भी नहीं है। इतने बड़े भवन में लिफ्ट की व्यवस्था तो दूर शिफ्ट की व्यवस्था भी नहीं है, जो एक उम्रदराज बुजुर्ग के लिए जरूरी होता है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्राय: स्वाभिमानी होते हैं, वे स्वयं आपस में चंदा इकट्ठा कर बैठकें एवं किसी कार्यक्रम को अंजाम देते रहे हैं, लेकिन क्या शासन-प्रशासन कार् कत्तव्य नहीं बनता कि प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानी संगठन को आर्थिक रूप से सक्षमता प्रदान की जाए, ताकि वे वर्षभर की गतिविधियों को स्वतंत्र रूप से संचालित कर सकें। ऐसा नहीं है कि जिला और निगम प्रशासन को शहीद स्मारक भवन से मिलने वाली आय-व्यय के स्रोत में कमी हो प्रतिदिन का हिसाब ही देखें तो सभागार का एक दिन का किराया 8 से 12 हजार, विद्युत व्यय 2 हजार रुपये, सफाई व्यवस्था 500 रुपये, कमरा आबंटन के लिए अमानत राशि दस हजार रुपये, म्यूजियम आर्ट गैलरी का प्रतिभाग का किराया 5 हजार रुपये, इसके अलावा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से मिलने वाला नियमित किराया तो अलग, बावजूद इसके स्वंतत्रता संग्राम सेनानियों के संस्था को फूटी कौड़ी नहीं मिलती। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृति शिलालेख कक्ष तो है लेकिन कहीं किसी दीवार पर किसी एक की भी छायाचित्र आप टंगे हुए नहीं पायेंगे।
ब्लॉग में इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद कुछ गैर राजनीतिक युवकों ने 05 जनवरी की शाम 'शहीद स्मारक भवन' पहुंच कर मोमबत्तियाँ लगा कर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
स्मारक भवन को पूर्णरूपेण कम्प्युनिटी हॉल जैसे बना देना चिंता का विषय है। लायब्रेरी में देशभक्ति पूर्ण प्रेरणास्पद पुस्तकें हो तो बेहतर होगा। हमारे संगठन को भवन से मिलने वाली आय स्रोत का एक अंश नहीं मिलता। बैठकें लेनी हों तो आपस में खर्चे का जुगाड़ कर लेते हैं।         (साभार : देशबन्धु , रायपुर)

जनवरी 02, 2011

मीठी शक्कर का कड़वा होता बाजार


मीठी शक्कर का बाजार कड़वा होता जा रहा है। दीपावली के बाद से शक्कर में लगभग 200 रूपए प्रति क्विंटल का उछाल स्थानीय कारोबार में आ गया है। सस्ती विदेशी शक्कर को देश में आने से रोकने के लिए सरकार में शामिल षड़यंत्रकारियों ने शक्कर आयात नीति पर कर की दर में 60 % की बढ़ोतरी कर दी है । ऐसा करने से विदेशी यहाँ शक्कर मंहगी होगी और कारोबारी देशी शक्कर लॉबी के चक्कर से बाहर नहीं जा पायेंगे , शक्कर लॉबी मनमाने दाम वसूलने में फ़िर एक बार सफ़ल होगी । बीते वर्ष का अनुभव काम आयेगा ।
बाजार में माल की आवक हो रही है और डिमांड धीरे-धीरे बढ़ रही है। माह के शुरू में भाव 2900 से 2940 रूपए प्रति क्विंटल चल रहे थे, जो बढ़कर 3110 रूपए स्थानीय कारोबार में हो गए। शनिवार को बाजार कुछ नीचे उतरकर 3000-3050 पर आ गए। आगे सरकार की पॉलिसी पर बाजार निर्भर रहेगा। कारोबारी जानकारों का कहना है कि विश्व स्तर पर शक्कर के दाम चढ़ने की खबरें हैं। दूसरा कारोबारियों को शक्कर का निर्यात खुलने की भी उम्मीद है। इससे कीमतों में तेजी दर्ज की जा रही है और हमारे यहाँ इस कारोबार से जुड़े कुछ बड़े लोग जो राजनीति और सरकार से सीधे जुड़े हैं इस अवसर का फ़ायदा उठाने की फ़िराख में हैं। शक्कर के भाव ऊपर-नीचे होने में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जानकारों का कहना है कि सरकार की इच्छा है कि शक्कर मिलें समय से चालू हो और गन्ना किसानों को ऊंचे भाव पर गन्ने का रेट मिले। लेकिन मिले किसानों को 230 रूपए के आसपास भाव देना चाहती है । यह भी सरकार की एक बड़ी चाल है । 45 रुपये किलो की शक्कर बेच चुके लोगों को मानो खून लग चुका है ऊचें दाम का मुनाफ़ा खाने-कमाने  का सो  शादी-ब्याह के सीजन के बहाने फ़िर एक बार कोशिश करेंगे तगड़ा मुनाफ़ा कमाने की । सच  पूछो तो शक्कर के दाम से ज्यादा खतरनाक हैं हमारे नेताओं के इरादे । इनके बेईमान इरादों से कैसे बचेंगे हम !

फ़िल्म दिल्ली 6 का गाना 'सास गारी देवे' - ओरिजनल गाना यहाँ सुनिए…

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