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रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस

रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा   :  मो. नं. 9717630982 पर करें एसएमएस
रेलवे की एस.एम.एस. शिकायत सुविधा : मो. नं. 9717630982 पर करें एस.एम.एस. -- -- -- ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------- ट्रेन में आने वाली दिक्कतों संबंधी यात्रियों की शिकायत के लिए रेलवे ने एसएमएस शिकायत सुविधा शुरू की थी। इसके जरिए कोई भी यात्री इस मोबाइल नंबर 9717630982 पर एसएमएस भेजकर अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है। नंबर के साथ लगे सर्वर से शिकायत कंट्रोल के जरिए संबंधित डिवीजन के अधिकारी के पास पहुंच जाती है। जिस कारण चंद ही मिनटों पर शिकायत पर कार्रवाई भी शुरू हो जाती है।

मार्च 31, 2011

कम नहीं हुआ कन्या भ्रुण हत्या का मामला : शर्मसार हुआ देश




 जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौली ने भारत की 15वीं जनगणना के आंकड़े जारी किये। इन आंकड़ो के अनुसार भारत की कुल आबादी एक अरब इक्कीस करोड़ पर पहुंच गयी है।  पिछले 10 सालो में भारत की आबादी 18 करोड़ बढी है।  देश में महिलाओ की कुल आबादी 58 करोड़ है।  यानि कि पिछले 10 सालो में 9 करोड़ महिलाओं की आबादी बढी है जबकि पुरुषों की कुल आबादी 62 करोड़ है। और पुरुषो की आबादी 17 फीसदी और महिलाओ की आबादी में 18 फीसदी की वृद्धि हुई है।
इस जनगणना का एक सबसे निराशाजनक तथ्य सामने आया है कि लिंग अनुपात में महिलाओं की संख्या में और कमी आई है। प्रति हजार पुरुषो के अनुपात में महिलाओ की संख्या 927 से घटकर 914 हो गई है। इतना ही नहीं गर्भ में भी लड़कियों की हत्या के मामलों मे बढ़ोत्तरी हुई है।
जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक पुरुषों की आबादी 17 फीसदी बढ़ी है। वही महिलाओं की आबादी 18 फीसदी बढी है। 6 साल तक के बच्चो की संख्या घटी है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ी है।
15वीं जनगणना से प्राप्त आंकड़ो के मुताबिक उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 21 करोड़ है। जबकि जनसंख्या के हिसाब से महाराष्ट्र दूसरे नंम्बर का राज्य बन गया है। देश का एक मात्र नागालैंड ऐसा राज्य है जिसकी जनसंख्या में कमी आयी है। ठाणे देश का सबसे अघिक आबादी वाला जिला उभरा है ।  यह तो अच्छा है कि लड़कियाँ अब शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों से आगे आ रही हैं । साक्षरता दर में भी  अब लड़कियों ने बाजी मारी है । पुरुष साक्षरता दर 38.82  %  है , वहीं महिलाओं की साक्षरता दर 49.10 % है । युवा महिलाओं की संख्या में भी पुरुषों की तूलना में इजाफ़ा हुआ है । यह संख्या प्रति हजार युवा पुरुषों पर पहले  933  थी जो अब बढ़ कर  940  हो गई है ।

मार्च 28, 2011

भारत में बाघों की संख्या बढ़ी




भारत में  बाघों (टाइगर्स) की संख्या 295 बढ़ गई है। दुनिया के सबसे ज्यादा बाघ भारत में ही रहते हैं लेकिन उनके अस्तित्व पर बराबर खतरा मंडरा रहा है. ऐसे में बाघ की आबादी के ताजा आंकड़े निःसंदेह खुश करने वाले हैं , अब भारत में बाघों की संख्या बढ़ कर 1706 हो गई है ।

पिछले साल हुई इस गणना के दौरान भारत में बाघों की संख्या 1,706 बताई गई है जो 2006 में 1,411 थी. नई दिल्ली में अधिकारियों ने बताया कि बाघों की संख्या में वद्धि की वजह सही तरह से उनकी गिनती करना है. सरकार की तरफ से चलाए जा रहे प्रोजेक्ट टाइगर के राजेश गोपाल ने कहा, "हमने अपनी गिनती का दायरा पूरे भारत तक बढ़ा दिया है और हमारा अनुमान पहले से कहीं ज्यादा सही है."

दुनिया के लगभग आधे बाघ भारत में रहते हैं , लेकिन उनकी संख्या तेजी से घट रही है।
 टाइगरों की इस गणना में सुंदरवन जैसे इलाकों में भी सघन रूप से गिनती की गई। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में फैले इस इलाके को खासा दुर्गम माना जाता है। सरकार की ओर से उनके संरक्षण के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम में इस बात की पूरी कोशिश की गई है कि इस खूबसूरत जानवर को लुप्त होने से रोका जाए।

2002 में भारत में बाघों की संख्या 3,700 थी जबकि बात अगर 1947 की करें तो यह संख्या 40 हजार के आसपास थी। पूरे एशिया में अधिकारी बाघ के शिकार को रोकने की कोशिशों में जुटे हैं। जंगलों को काटे जाने से भी बाघों के बसेरे सिमट रहे हैं। यह भी उनकी घटती संख्या की वजह मानी जाती है।



मार्च 17, 2011

"गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा…"


साथी और भाई संजीत त्रिपाठी की सलाह है कि मैं,पत्रकारिता के अपने अनुभव "खबरों की दुनियाँ" में शेयर करुं । कोशिश होगी कि वर्तमान समय जो बदलाव आया या आ रहा है उसे दृष्टिगत कर अपने अनुभव आप तक इस माध्यम से पहुंचा सकूं ।पिछ्ड़ा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ , पत्रकारिता के क्षेत्र में समृद्ध रहा है । ज्यादा पुरानी बात नहीं करता 1985 से आज तक की बातें करें तो इस क्षेत्र में "मूल्यों" का बड़ा परिवर्तन आया है ।यहाँ मेरे कहने का यह मतलब कतई न निकाला जाए कि अब कहीं मूल्यवान पत्रकारिता नहीं हो रही है या फ़िर आज के साथी यह समझने की भूल कर बैठें कि वे मूल्यवान पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं और पुराने लोग बड़े आदर्शवादी थे । यहाँ मैं उन हालातों की चर्चा करने की चेष्टा करुंगा जिन्होंने पत्रकारिता के मूल्य बदले हैं और आज जिन वजहों से पत्रकारिता से जुड़े कलम के सच्चे सिपाही भी जन सामान्य को पत्रकारिता पर सरेराह टिप्पणी करते , कुछ भी कहते-बोलते सुनते रहते हैं ।
सन 1990 का दौर था एक बड़े पत्र ने रायपुर की धरती पर अपनी नींव रखनी शुरु की थी । सही मायने मे यही वह काल खण्ड था जहाँ से बदलाव की बयार बहुत धीरे-धीरे ही सही ,लेकिन बहना शुरु हो गई थी । स्थापित दो बड़े अखबारों के दिल की धड़कनें बढ़ गईं थीं । इससे पहले तक "प्रतिस्पर्धा" धीमी थी और मान-मर्यादा , लोक लिहाज से मानो डरती थी । रिपोर्टिंग की ही बात की जाय तो उन दिनों किसी भी घटना की रिपोर्ट और उसका फ़ालोअप , नतीजे तक पहुंचने तक करना पत्र की मानो एक जिम्मेदारी होती थी  , दूसरा पत्र भी समर्थन की दिशा में काम करता था । किसी भी तरह का दबाव सोचना भी मानो पाप जैसा था , तब लोग ऐसा पाप करना तो दूर सोचने से भी डरते थे । कहने का सीधा सा मतलब कि समाचार पत्रों का दबाव था अपराधी ही नहीं तत्कालीन शासन-प्रशासन भी डरता था कि उससे कहीं कोई बड़ी गलती न हो जाय , वर्ना खैर नहीं । पत्र समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भलिभाँति वाकिफ़ ही नहीं थे बल्कि सतत उसका निर्वहन भी करते थे।  पत्र-पत्रकारों की राय-सुमारी केवल सामाजिक संगठन ही नहीं , नेता और शासन-प्रशासन के लोग भी मानते थे , क्रियान्वित करते थे । मायाराम जी सुरजन , मधुकर खेर जी , बबन प्रसाद जी मिश्र , राजनारायण मिश्रा जी  'दा' , कुमार साहू जी , गिरिजा शंकर जी अग्रवाल , रम्मू शीवास्तव जी, सतेन्द्र गुमाश्ता जी ,  रामाश्रय उपाध्याय जी , बसंत तिवारी जी , नीरव जी , अनल शुक्ल जी , नरेन्द्र पारख जी , निर्भीक वर्मा जी  और इनके बाद एम ए जोसेफ़ , आसिफ़ इकबाल , सुरेश तिवारी  जैसे और बहुत सारे ऐसे नाम हैं जो पत्रकारिता करते हुए समाज हित को सर्वोपरि रखते रहे हैं । हमें सौभाग्य से ऐसे लोगों के मार्ग दर्शन में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ । समय ने करवट ली नया राज्य बना छत्तीसगढ़  राजधानी में हर बड़े पत्र - पत्रिकाओं के स्टेट ब्यूरो आए , पत्रकारिता को नई दिशा मिली , रायपुर ने भी जाना क्या होती है  ' पेड न्यूज ' । उन दिनों मैं दैनिक भास्कर में था । प्रदेश में पहली मर्तबा विधान सभा का चुनाव का समय आ गया था , मुझे और मेरे जैसे तमाम लोगों को बताया गया कि किस पार्टी की न्यूज कैसी और क्यूं लगेगी और किसकी नहीं लगेगी । चुनावी पैकेज कैसा होता है यह भी उम्मीदवारों को हमें ही समझाने को कहा गया , मेरे मना करने पर मुझे काम से हटाने की बात समझाई गयी , बाद में मेरे आग्रह पर यह काम मेरे कार्यक्षेत्र में प्रेस के उच्च पदस्थ व्यक्ति ने आ कर पैकेज डील किया प्रेस के लिए । कुछ दिनों बाद मैं कार्यमुक्त हो गया था । फ़िर मैंने रायपुर मे ही जहाँ भी नौकरी की यही तकलीफ़ आई , दरअसल मैं था संपादकीय विभाग का आदमी , मुख्य रूप से सिटी रिपोर्टर रहा , विशेष संवाददाता रहा , प्रेस प्रबंधन चाहता था मैं और मेरे साथी विज्ञापन और प्रसार का भी काम देंखें , पेपर के लिए जमीन दिलाने , सरकारी मामले -मुकदमें निपटाने का भी काम बखूबी करें जो हम नहीं करना चाहते थे । हम गुलदस्ता हाँथों में लेकर किसी मंत्री या अधिकारी के  घर - दफ़्तर के बाहर नहीं खडे होना सीख पाए थे , हमारे अग्रजों ने हमें यह नहीं सिखाया था , सो हमारे जैसे सभी लोग फ़ेल हो गये ऐसा कर पाने में और आज सब प्रेस से बाहर अपना अपना छोटा छोटा काम जो पत्रकारिता से जुडा है कर रहे हैं । हाँ 1993-94 में रायपुर से प्रकाशित पहले रंगीन दैनिक अखबार समवेत शिखर में काम करते हुए उस अखबार के लिए , तत्कालीन कलेक्टर देवराज विरदी जी से अच्छे संबंधों के चलते रजबंधा मैदान जो आज प्रेस कॉम्प्लेक्स के नाम से जाना जाता है  , वहाँ पर 44000 वर्गफ़ुट(एक एकड़) जगह उस प्रेस को एक रुपये वर्गफ़ुट के हिसाब से दिलवाने का काम जरूर किया था , इस जगह को उस समय रौद्रमुखी पत्र के लिए लेने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन यह जगह हमें मिल गई थी । आज वहाँ नवनिर्मित कॉम्प्लेक्स बन कर तैयार है । हम तब और अब भी ऐसे कामों से अपना नफ़ा - नुकसान नहीं समझ पाए । लेकिन आज हालात किसी से छिपे नहीं हैं । हमको ही सोचना होगा हम जाने अनजाने में क्या कर रहें हैं । जहाँ कभी प्रेस की बिल्डिंग देखी थी लोगों ने उसी जगह पर विशाल शॉपिंग मॉल खड़े हो रहे हैं । लोग अब सरेराह इनपर छींटा कसी कर रहे हैं , जो इस शहर में कभी खरा - खरा लिखने के नाम से जाने जाते थे उन्हें भी सरकार से पद चाहिए , वह भी चुप बैठने को सशर्त तैयार देखे जा सकते हैं ।  साथी पत्रकार जिन्होने समय के साथ करवट बदली - उन मूल्यों को तिलांजलि दी जो कभी बेहद मूल्यवान हुआ करते थे और वे आज करोड़ों रुपयों बेशुमार दौलत के मालिक हैं जमीन के कारोबार में जुड़े तमाम लोगों के बेहद हित चिंतक हैं । यह है पत्रकारिता का नया स्वरूप । पहले कभी जिन मूल्यों की कदर थी वह मुल्य अब बेकद्री के शिकार हैं , नये मूल्य स्थापित हो गये जिन्हें रिक्शा चलाने वाला भी समझता है कि इस मूल्य से बोटल आती है  , ऐसे मूल्य आज हुए हैं यहाँ मूल्यवान । छत्तीसगढ़ में तो मानो मौका भी है और दस्तूर भी कि दोनो हाँथों से लूट लो , ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा ? फ़िर यह भी तो सही है न कि गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा… सच ही है सब लूटो - खावो में लगे हैं इस अमीर धरती को और उसके गरीब लोगों को। मुबारक हो ।

मार्च 09, 2011

जानिए होली को उसके समूचे स्वरूप में






होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।

इतिहास

होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।


राधा-श्याम गोप और गोपियो की होली

इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है । शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।

 होली की कहानियाँ


भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था ।

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।


होलिका दहन

होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।


सार्वजनिक होली मिलन

होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

 देश विदेश की होली

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया , जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

साहित्य में होली

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर , जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

संगीत में होली


भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।
आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।

मार्च 06, 2011

होली खेलने से पहले पत्रिका की यह खबर पढ़िए …

                                                                                                           
                                                                              


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