साथी और भाई संजीत त्रिपाठी की सलाह है कि मैं,पत्रकारिता के अपने अनुभव "खबरों की दुनियाँ" में शेयर करुं । कोशिश होगी कि वर्तमान समय जो बदलाव आया या आ रहा है उसे दृष्टिगत कर अपने अनुभव आप तक इस माध्यम से पहुंचा सकूं ।पिछ्ड़ा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ , पत्रकारिता के क्षेत्र में समृद्ध रहा है । ज्यादा पुरानी बात नहीं करता 1985 से आज तक की बातें करें तो इस क्षेत्र में "मूल्यों" का बड़ा परिवर्तन आया है ।यहाँ मेरे कहने का यह मतलब कतई न निकाला जाए कि अब कहीं मूल्यवान पत्रकारिता नहीं हो रही है या फ़िर आज के साथी यह समझने की भूल कर बैठें कि वे मूल्यवान पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं और पुराने लोग बड़े आदर्शवादी थे । यहाँ मैं उन हालातों की चर्चा करने की चेष्टा करुंगा जिन्होंने पत्रकारिता के मूल्य बदले हैं और आज जिन वजहों से पत्रकारिता से जुड़े कलम के सच्चे सिपाही भी जन सामान्य को पत्रकारिता पर सरेराह टिप्पणी करते , कुछ भी कहते-बोलते सुनते रहते हैं ।
सन 1990 का दौर था एक बड़े पत्र ने रायपुर की धरती पर अपनी नींव रखनी शुरु की थी । सही मायने मे यही वह काल खण्ड था जहाँ से बदलाव की बयार बहुत धीरे-धीरे ही सही ,लेकिन बहना शुरु हो गई थी । स्थापित दो बड़े अखबारों के दिल की धड़कनें बढ़ गईं थीं । इससे पहले तक "प्रतिस्पर्धा" धीमी थी और मान-मर्यादा , लोक लिहाज से मानो डरती थी । रिपोर्टिंग की ही बात की जाय तो उन दिनों किसी भी घटना की रिपोर्ट और उसका फ़ालोअप , नतीजे तक पहुंचने तक करना पत्र की मानो एक जिम्मेदारी होती थी , दूसरा पत्र भी समर्थन की दिशा में काम करता था । किसी भी तरह का दबाव सोचना भी मानो पाप जैसा था , तब लोग ऐसा पाप करना तो दूर सोचने से भी डरते थे । कहने का सीधा सा मतलब कि समाचार पत्रों का दबाव था अपराधी ही नहीं तत्कालीन शासन-प्रशासन भी डरता था कि उससे कहीं कोई बड़ी गलती न हो जाय , वर्ना खैर नहीं । पत्र समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भलिभाँति वाकिफ़ ही नहीं थे बल्कि सतत उसका निर्वहन भी करते थे। पत्र-पत्रकारों की राय-सुमारी केवल सामाजिक संगठन ही नहीं , नेता और शासन-प्रशासन के लोग भी मानते थे , क्रियान्वित करते थे । मायाराम जी सुरजन , मधुकर खेर जी , बबन प्रसाद जी मिश्र , राजनारायण मिश्रा जी 'दा' , कुमार साहू जी , गिरिजा शंकर जी अग्रवाल , रम्मू शीवास्तव जी, सतेन्द्र गुमाश्ता जी , रामाश्रय उपाध्याय जी , बसंत तिवारी जी , नीरव जी , अनल शुक्ल जी , नरेन्द्र पारख जी , निर्भीक वर्मा जी और इनके बाद एम ए जोसेफ़ , आसिफ़ इकबाल , सुरेश तिवारी जैसे और बहुत सारे ऐसे नाम हैं जो पत्रकारिता करते हुए समाज हित को सर्वोपरि रखते रहे हैं । हमें सौभाग्य से ऐसे लोगों के मार्ग दर्शन में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ । समय ने करवट ली नया राज्य बना छत्तीसगढ़ राजधानी में हर बड़े पत्र - पत्रिकाओं के स्टेट ब्यूरो आए , पत्रकारिता को नई दिशा मिली , रायपुर ने भी जाना क्या होती है ' पेड न्यूज ' । उन दिनों मैं दैनिक भास्कर में था । प्रदेश में पहली मर्तबा विधान सभा का चुनाव का समय आ गया था , मुझे और मेरे जैसे तमाम लोगों को बताया गया कि किस पार्टी की न्यूज कैसी और क्यूं लगेगी और किसकी नहीं लगेगी । चुनावी पैकेज कैसा होता है यह भी उम्मीदवारों को हमें ही समझाने को कहा गया , मेरे मना करने पर मुझे काम से हटाने की बात समझाई गयी , बाद में मेरे आग्रह पर यह काम मेरे कार्यक्षेत्र में प्रेस के उच्च पदस्थ व्यक्ति ने आ कर पैकेज डील किया प्रेस के लिए । कुछ दिनों बाद मैं कार्यमुक्त हो गया था । फ़िर मैंने रायपुर मे ही जहाँ भी नौकरी की यही तकलीफ़ आई , दरअसल मैं था संपादकीय विभाग का आदमी , मुख्य रूप से सिटी रिपोर्टर रहा , विशेष संवाददाता रहा , प्रेस प्रबंधन चाहता था मैं और मेरे साथी विज्ञापन और प्रसार का भी काम देंखें , पेपर के लिए जमीन दिलाने , सरकारी मामले -मुकदमें निपटाने का भी काम बखूबी करें जो हम नहीं करना चाहते थे । हम गुलदस्ता हाँथों में लेकर किसी मंत्री या अधिकारी के घर - दफ़्तर के बाहर नहीं खडे होना सीख पाए थे , हमारे अग्रजों ने हमें यह नहीं सिखाया था , सो हमारे जैसे सभी लोग फ़ेल हो गये ऐसा कर पाने में और आज सब प्रेस से बाहर अपना अपना छोटा छोटा काम जो पत्रकारिता से जुडा है कर रहे हैं । हाँ 1993-94 में रायपुर से प्रकाशित पहले रंगीन दैनिक अखबार समवेत शिखर में काम करते हुए उस अखबार के लिए , तत्कालीन कलेक्टर देवराज विरदी जी से अच्छे संबंधों के चलते रजबंधा मैदान जो आज प्रेस कॉम्प्लेक्स के नाम से जाना जाता है , वहाँ पर 44000 वर्गफ़ुट(एक एकड़) जगह उस प्रेस को एक रुपये वर्गफ़ुट के हिसाब से दिलवाने का काम जरूर किया था , इस जगह को उस समय रौद्रमुखी पत्र के लिए लेने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन यह जगह हमें मिल गई थी । आज वहाँ नवनिर्मित कॉम्प्लेक्स बन कर तैयार है । हम तब और अब भी ऐसे कामों से अपना नफ़ा - नुकसान नहीं समझ पाए । लेकिन आज हालात किसी से छिपे नहीं हैं । हमको ही सोचना होगा हम जाने अनजाने में क्या कर रहें हैं । जहाँ कभी प्रेस की बिल्डिंग देखी थी लोगों ने उसी जगह पर विशाल शॉपिंग मॉल खड़े हो रहे हैं । लोग अब सरेराह इनपर छींटा कसी कर रहे हैं , जो इस शहर में कभी खरा - खरा लिखने के नाम से जाने जाते थे उन्हें भी सरकार से पद चाहिए , वह भी चुप बैठने को सशर्त तैयार देखे जा सकते हैं । साथी पत्रकार जिन्होने समय के साथ करवट बदली - उन मूल्यों को तिलांजलि दी जो कभी बेहद मूल्यवान हुआ करते थे और वे आज करोड़ों रुपयों बेशुमार दौलत के मालिक हैं जमीन के कारोबार में जुड़े तमाम लोगों के बेहद हित चिंतक हैं । यह है पत्रकारिता का नया स्वरूप । पहले कभी जिन मूल्यों की कदर थी वह मुल्य अब बेकद्री के शिकार हैं , नये मूल्य स्थापित हो गये जिन्हें रिक्शा चलाने वाला भी समझता है कि इस मूल्य से बोटल आती है , ऐसे मूल्य आज हुए हैं यहाँ मूल्यवान । छत्तीसगढ़ में तो मानो मौका भी है और दस्तूर भी कि दोनो हाँथों से लूट लो , ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा ? फ़िर यह भी तो सही है न कि गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा… सच ही है सब लूटो - खावो में लगे हैं इस अमीर धरती को और उसके गरीब लोगों को। मुबारक हो ।
खरी खरी सटीक बात कही आशुतोष भाई।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा। अब पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं।
आपके आगमन एवम विचार संप्रेषण के लिए आभार ललित भैया जी । कोटिशः धन्यवाद । होली की बधाई - शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंजब सब कुछ बदल रहा है तो प्त्रकारिता कैसे अछूती रहेगी? जीवन के मायने ही बदल गये हैं। होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंआशुतोष जी बच्चन की मधुशाला की इन लाइनों पर गौर फरमाइए
जवाब देंहटाएंअपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुआ अपना प्याला
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला
फिर भी वृद्वों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया
अब न रहे वो पीने वाले अब न रही वो मधुशाला
आपकी ईमानदारी की जान कर बेहद खुशी हुयी.आप सब को होली की हार्दिक मुबारकवाद.
जवाब देंहटाएंसराहनीय .......कोटि-कोटि बधाई।
जवाब देंहटाएंआपका होली के अवसर पर विशेष ध्यानाकर्षण हेतु.....
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देश को नेता लोग करते हैं प्यार बहुत?
अथवा वे वाक़ई, हैं रंगे सियार बहुत?
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होली मुबारक़ हो। सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
यही और इसीलिए ही मैं आपसे कहता आ रहा था कि अपने तब के अनुभवों को शब्दों में ढालिए, शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंदर- असल देशकाल का असर सब पर पड़ता है और प्रेस लाइन पर भी, अर्थात पत्रकारिता पर भी,
मुझे मेरे प्रबंध संपादक के भाई ने एक मीटिंग में कहा विज्ञापन के लिए, तब मैंने सीधा जवाब दे दिया कि "मैं ज्यादा से ज्यादा मार्केटिंग वाले बन्दे की मदद के लिए फोन पर कह सकता हूँ पार्टी को, और आप अगर यह अपेक्षा रखते हैं कि मैं खुद जाकर विज्ञापन की बात करूँ तो यह मुझसे नहीं होगा". बस उसी दिन से मैं अपने प्रबंध संपादक की बैड बुक में आ गया. और मेरे प्रबंध संपादक को आपसे बेहतर कौन जानता है.
खैर, आप अपने अनुभवों की यह श्रंखला जारी रखें ताकि हम जैसे बालक कुछ जानें, कुछ सीखें