भोपाल गैस काण्ड़ का भूत मानो पूरे देश में नेताओं के साथ-साथ घूम रहा है । नेता जहां भी जा रहे हैं -मानो भूत को साथ साथ ले जा रहे हैं ।भारतीय जनता पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता रवि शंकर प्रसाद जी ने 16,जून 2010 को राजधानी रायपुर में पत्रकारों से चर्चा की , कहा कि भोपाल गैस काण्ड़ के बाद यूनियन कारबाईड़ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एडरसन को भोपाल से बाहर सुरक्षित निकाले जाने के मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह कुछ बोलते क्यों नहीं हैं ? मौन क्यों हैं ? इसका क्या मतलब समझा जाना चाहिए ?
इसके बाद भी अर्जुन सिंह तो कुछ नहीं बोले , मगर यह बात हमारे स्थानीय कांग्रेस नेताओं को जमीं नहीं , चुप रहना भी नागवार गुजरने लगा । राजधानी में कांग्रेस के नेता - पूर्व मन्त्री मोहम्मद अकबर से चुप रहा नहीं गया ।
दूसरे ही दिन उन्होंने शहर स्थित अपने दफ़्तर में पत्रकारों को बुलाया और`रवि शंकर प्रसाद के उक्त कथन पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा - भोपाल गैस काण्ड़ की चिन्ता जताने वाले श्री प्रसाद जी को यह मालूम होना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के कोरबा में चिमनी गिरने से बड़ी संख्या में श्रमिक मारे गये हैं , यह भी एक बड़ी औद्योगिक घटना है इसमें भा द वि की उसी धारा के तहत अपराध पंजीबद्ध हुआ है जैसा कि भोपाल के मामले में दर्ज है । श्री प्रसाद जी को छ्त्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री जी से यह पूछ्ना चाहिये था कि कोरबा के इस अति संवेदनशील मामले में वे क्या कर रहे हैं ? क्यों उस कम्पनी के मालिक अनिल अग्रवाल को बचाने की कोशिशें की जा रही है ?
क्यों इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिशें की जा रहीं हैं ? भा ज पा के नेता इस मसले पर मौन क्यों हैं ? आदि ।
इस खबर का यहां उल्लेख कर यह बताना चाहता हूं कि एक बार फ़िर यह बात सच साबित हो रही है , कि ये सभी नेता एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं , और ये खुद ही साबित करने में भी लगे दिख रहे हैं कि मरने वाले मरते रहें , राजनीति करने के लिये उनकी लाशें ही काफ़ी हैं । मुद्दा अच्छा है जनता के बीच हो - हल्ला करने-कराने के लिये । भोपाल में आज से पच्चीस साल पहले हुआ मौत का ताण्ड़व अब जब नई पीढ़ी को भी असह्य दर्द दे गया है तब भला उस पर मरहम लगाना छोड राजनीति करना कितना उचित है ? मगर नेताओं को क्या हर गरम तवे पर उन्की रोटी सिंकनी चाहिए बस । मगर हमार मानना तो यह है कि काण्ड चाहे भोपाल का हो या फ़िर कोरबा का , न्याय और मानवीय संवेदनाएं तो कम से कम दोहरी नहीं होनी चाहिए । ना जाने नेता बन जाने के बाद इनकी संवेदनाएं कहाँ मर जातीं हैं ? राजनीति ही सर चढ़कर क्यों बोलती है ? बुद्धी-विवेक कहां चला जाता है ? लोगों की मौतें मानो इनकी किस्मत से हुई हों , मुख्य मुद्दा छोड ये आपस में ही तू-तू मैं-मैं करने लगते हैं और मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने में सफ़ल भी हो जाते हैं । समर्थक आपसी झगड़ों में सिर फ़ुटव्वल करते नजर आने लगते हैं । बड़ी ही दुर्भाग्यजनक बात है यह । शर्म आनी चाहिये नेताओं को ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर आरोप - प्रत्यारोप और दलगत राजनीति करने करते हुए । आखिर कहाँ जाकर और कब जा कर सुधरेंगे आदमी से नेता बने ये लोग ???
लगी खेलने लेखनी, सुख-सुविधा के खेल। फिर सत्ता की नाक में, डाले कौन नकेल।। खबरें वो जो आप जानना चाह्ते हैं । जो आप जानना चाह्ते थे ।खबरें वो जो कहीं छिपाई गई हों । खबरें जिन्हें छिपाने का प्रयास किया जा रहा हो । ऐसी खबरों को आप पायेंगे " खबरों की दुनियाँ " में । पढ़ें और अपनी राय जरूर भेजें । धन्यवाद् । - आशुतोष मिश्र , रायपुर
मेरा अपना संबल
जून 17, 2010
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