हमको लगता है अब शायद ही कोई अखबार बिना किसी सहारे के बिक पायेगा , तभी शायद इसे बेचने निकलने वाले अखबार के साथ स्टील या कांच के बर्तन , चटाई या फ़िर पूजा का आसन या फ़िर प्लास्टिक की बाल्टी , सोडा , सर्फ़ साबुन जैसे तरह-तरह के अन्य होम एप्लायसेंस के सहारे अखबार का ग्राहक बनाने गली-गली घूमते दिख जाया करते हैं । सवाल यह है कि ऐसा क्यों होने लगा है ? अखबार अपने नाम , अपने काम की वजह से बिकेंगे ,ऐसा अखबार निकालने -चलाने वालों को क्यों नहीं लगता ? उनको अपने अखबार की गुणवत्ता से कहीं ज्यादा भरोसा बाज़ार की घरेलू सामग्री पर और लोगों को लालच देने , भरमाने पर भला क्यों रहता है ? लगता है कहीं न कहीं वो भी यह स्वीकार कर चुके हैं कि जो आम पाठकों को चाहिए वह सब अब वो उन्हें उपलब्ध नहीं करा पायेंगे । अखबार अब बिना किसी सहारे नहीं बिक पायेंगे , शायद । इसीलिए बीच का रास्ता अख्तियार करना पढ़ रहा है । लालच देकर ग्राहक पटाओ और सच्चाई ,सही- सही खबरें ना छाप कर ,जन समस्याओं को न छाप कर उनको खुश रखो , उपकृत करो जिनसे पैकेज या विज्ञापन आदि मिलते हों । कुछ अखबारों ने तो बाकायदा ऐसे कुछ फ़ॉर्मेट तय कर लिये हैं कि चाहे जो हो जाये पर वो किस -किस के खिलाफ़ नहीं जायेंगे या फ़िर किस-किस से समर्थन में कुछ नहीं लिखेंगे । इसके दिशा - निर्देश " ऊपर " से होते हैं , जिसके लिए सड़कों पर गाली खाते हैं अखबारों के फ़ील्ड वर्कर , रिपोर्टर , मार्केटिंग का काम देखने वाले लोग । अंधी और दिशा हीन दौड़ , सिर्फ़ और सिर्फ़ पैस कमाने की होड़ में लगे ये धन पिशाच से लोगों ने कलंकित कर दिया है अखबार जगत को । अब भला इन्हें कोई कैसे यह समझा सकता है कि यार अपना उत्पाद ही ईमानदारी के साथ निकालें तो इन्हें किसी भी दूसरे के उत्पाद का सहारा नहीं लेना पड़ेगा । लेकिन इनको तो कारपोरेट जगत में ऐनकेन प्रकारेण अपने आपको लेजाने की सूझ रही है न । लोग क्या चाहते हैं ? इसकी चिंता भला ये क्यों करने लगे ? कुछ भी छाप दो , अखबार बिकेगा शैम्पू ,तेल टेबल-कुर्सी , सी डी , डी वी डी , टी वी , घड़ी और पंखे के सहारे । गया वो जमाना जब अखबार निकालना और उसे चलाना एक '" मिशन " हुआ करता था । आज जमाना हुआ है " कमीशन " का । अखबार को धंधा बना , पैसे के लिए अपने हांथों में फ़ूलों का गुलदस्ता लिए इसके - उसके दरवाजे घूमने वाले अब शायद ही जल्दी सुधर पायेंगे । जब तक कोई बड़ी घटना नहीं होगी ,ये शायद ही चेत पायेंगे ।Technorati tags: TagName
लगी खेलने लेखनी, सुख-सुविधा के खेल। फिर सत्ता की नाक में, डाले कौन नकेल।। खबरें वो जो आप जानना चाह्ते हैं । जो आप जानना चाह्ते थे ।खबरें वो जो कहीं छिपाई गई हों । खबरें जिन्हें छिपाने का प्रयास किया जा रहा हो । ऐसी खबरों को आप पायेंगे " खबरों की दुनियाँ " में । पढ़ें और अपनी राय जरूर भेजें । धन्यवाद् । - आशुतोष मिश्र , रायपुर
मेरा अपना संबल
जून 29, 2010
ये अखबार वाले
हमको लगता है अब शायद ही कोई अखबार बिना किसी सहारे के बिक पायेगा , तभी शायद इसे बेचने निकलने वाले अखबार के साथ स्टील या कांच के बर्तन , चटाई या फ़िर पूजा का आसन या फ़िर प्लास्टिक की बाल्टी , सोडा , सर्फ़ साबुन जैसे तरह-तरह के अन्य होम एप्लायसेंस के सहारे अखबार का ग्राहक बनाने गली-गली घूमते दिख जाया करते हैं । सवाल यह है कि ऐसा क्यों होने लगा है ? अखबार अपने नाम , अपने काम की वजह से बिकेंगे ,ऐसा अखबार निकालने -चलाने वालों को क्यों नहीं लगता ? उनको अपने अखबार की गुणवत्ता से कहीं ज्यादा भरोसा बाज़ार की घरेलू सामग्री पर और लोगों को लालच देने , भरमाने पर भला क्यों रहता है ? लगता है कहीं न कहीं वो भी यह स्वीकार कर चुके हैं कि जो आम पाठकों को चाहिए वह सब अब वो उन्हें उपलब्ध नहीं करा पायेंगे । अखबार अब बिना किसी सहारे नहीं बिक पायेंगे , शायद । इसीलिए बीच का रास्ता अख्तियार करना पढ़ रहा है । लालच देकर ग्राहक पटाओ और सच्चाई ,सही- सही खबरें ना छाप कर ,जन समस्याओं को न छाप कर उनको खुश रखो , उपकृत करो जिनसे पैकेज या विज्ञापन आदि मिलते हों । कुछ अखबारों ने तो बाकायदा ऐसे कुछ फ़ॉर्मेट तय कर लिये हैं कि चाहे जो हो जाये पर वो किस -किस के खिलाफ़ नहीं जायेंगे या फ़िर किस-किस से समर्थन में कुछ नहीं लिखेंगे । इसके दिशा - निर्देश " ऊपर " से होते हैं , जिसके लिए सड़कों पर गाली खाते हैं अखबारों के फ़ील्ड वर्कर , रिपोर्टर , मार्केटिंग का काम देखने वाले लोग । अंधी और दिशा हीन दौड़ , सिर्फ़ और सिर्फ़ पैस कमाने की होड़ में लगे ये धन पिशाच से लोगों ने कलंकित कर दिया है अखबार जगत को । अब भला इन्हें कोई कैसे यह समझा सकता है कि यार अपना उत्पाद ही ईमानदारी के साथ निकालें तो इन्हें किसी भी दूसरे के उत्पाद का सहारा नहीं लेना पड़ेगा । लेकिन इनको तो कारपोरेट जगत में ऐनकेन प्रकारेण अपने आपको लेजाने की सूझ रही है न । लोग क्या चाहते हैं ? इसकी चिंता भला ये क्यों करने लगे ? कुछ भी छाप दो , अखबार बिकेगा शैम्पू ,तेल टेबल-कुर्सी , सी डी , डी वी डी , टी वी , घड़ी और पंखे के सहारे । गया वो जमाना जब अखबार निकालना और उसे चलाना एक '" मिशन " हुआ करता था । आज जमाना हुआ है " कमीशन " का । अखबार को धंधा बना , पैसे के लिए अपने हांथों में फ़ूलों का गुलदस्ता लिए इसके - उसके दरवाजे घूमने वाले अब शायद ही जल्दी सुधर पायेंगे । जब तक कोई बड़ी घटना नहीं होगी ,ये शायद ही चेत पायेंगे ।Technorati tags: TagName
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vidhan sabha chunav 2008 me hamne PRESS ka vyavsaik chera dekha. 4/5 dashak se hum sarvjanik jeevan me hai parantu aise sthiti ki kalpna bhi nahi ki thi.
जवाब देंहटाएंMaalik ko power plant lagana hai- uska dhan rakho. G.M.,Sampadak,Beat wale patrakar aur had to tab ho gayi jab Page Maker bhi SANTUSHT hue bina LIFT DENE ko ready nahi.
Apne walon se pata chala ki us samay 30/40 KHOKHE to kewal KALAMNAVIS SAMPRADAY par hi kharch hue. Baki aapne jo likha hai usse kafi jayada neeche ye chale gaye hai.
Narayan Narayan.
जवाब देंहटाएंMai duniya ka pahla patrakar hu. Pichle 10/15 saalon me mere vanshaj kis had tak aa gaye hai. Dalali, Blackmailing, supply, aur na jane kya-kya. 100's of news papers & magazines are comming up and most of them are seen beging for govt. ads.
Janta ko inse ab umeed nahi karni chaheye. Kewal dukandari reh gayi hai.