नक्सली आतंक को लेकर छत्तीसगढ़ में जो स्थिती निर्मित है उसे भयावह ही कहा जा सकता है ।कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? यह प्रश्न सरल हो सकता है पर इसका उत्तर शायद इतना सरल नहीं है,जितना कि अपेक्षित रहता है ।नक्सलवाद कभी आंदोलन रहा होगा ,लेकिन अब आतंक का दूसरा नाम है । समाज को इस समस्या से खुद नक्सलियों ने और फ़िर मीडिया ने परिचित कराया है । पहले ने अपने आतंक के जरिये तो दुसरे ने अपने प्रचार माध्यमों को रेटिंग की सीढ़ी पर चढ़ा कर गला फ़ाडू आवाज में विस्तार देने का सफ़ल प्रयास किया है । दोनो ही तरीके घातक सिद्ध हुए हैं । दोनो ने ही इसे अपने-अपने मतलब से किया है। मैं चाहता हूँ कि आप स्वयं ही इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि किनके कितने प्रयासों से यह आंदोलन आतंक बन बैठा है । प्रश्न यह है कि क्या ऐसा किया जाना जरूरी था ? इससे किसको लाभ हुआ है ? आम लोगों में उत्पन्न भय का वातावरण घटना जनित है या फ़िर उन घट्नाओं के प्रचार-प्रसार का तौर तरीका भी एक जिम्मेदार पहलू है । किसी बड़ी घटना का हल्ला समझ आता है पर हर छोटी से छोटी बात पर भी उतना ही हल्ला होना ,क्या परोछ रूप से जन मानस में भय का वातावरण उत्पन्न करने में सहायक नहीं होता है ? क्या लगातार ऐसा होते रहना उचित होगा ? क्या यह सोचना-समझना हम मीडिया जगत से जुड़े लोगों की सामाजिक जिम्मेदारी नहीं बनती ? किस घटना का समाज पर कैसा असर होगा यह तय करना और इसे भुनना आतंकी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । ये लोग तोप ,तलवार के साथ-साथ हथियारों की ही तरह अखबार (मीडिया के अन्य सभी श्रोतों) का उपयोग भी करने लगे हैं । प्रारंभिक अवस्था है आज की जहां उन्हें इस तीसरे हथियार के प्रयोगके लिये खुद होकर ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है । चिंतन उन्हें जरूर करना चाहिए जो अनजाने में ही हथियार के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं । समाज इनकी करनी से कहीं ज्यादा भयभीत या कहें खौफ़ज़दा नजर आता है। हमें गंभीरता पूर्वक यह सोचना चाहिए कि एक खाली पड़ा थाना भवन उड़ा कर जितना आतंक वे वहां पैदा नहीं कर पाते उससे कहीं ज्यादा तो हम यहां उस घटना के विषय में प्रचारित-प्रसारित कर देश-दुनिया के लोगों में अनायास ही आतंक उत्पन्न कर देते हैं , आखिर क्यों ? शायद यहां यह कहना कतई भी गलत नहीं होगा कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हमको छोड़ कर शेष उपयोग कर्ता नेता , ठग , आतंकी , सभी अकबर इलाही की उन चंद लाईनों को सार्थक रूप में जी रहे हैं जिनमें यह कहा गया था कि- खिचों न कमान , न तलवार निकालो , गर तोप मुकाबिल हो तो "अखबार" निकाओ ।
तभी तो ये सभी के सभी अखबारों (मीडिया) का सबसे अच्छा और सीधा सा उपयोग करते आ रहे
हैं , बात बुरा मानने के लिए नहीं , बल्कि समझने और स्वीकार करने की है ।
बात पते की है भईया, सामान्य मानस, समाचारों से उत्पन्न इस प्रहार के आतंकी वातावरण का जो समाज में प्रभाव पड़ता है उसे समझ नहीं पाता. .. चिंतन में इस बात को लाने के लिए धन्यवाद भईया.
जवाब देंहटाएंमैंनें अपने ब्लॉग पर एक आलेख लिखा था जो बाद में नई दुनियां रायपुर के संपादकीय पन्ने पर भी प्रकाशित हुआ था. क्या इंटरनेट परोस रहा है नक्सल विचार धारा ?? जिसमें मैंनें इंटरनेट के द्वारा नक्सल सहानुभूति स्वरूप अमरीका के बर्कले विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़, पुलिस व सरकार विरोधी लहर का जिक्र किया था, छत्तीसगढ़ से परे संपूर्ण विश्व में समाचारों व माध्यमों नें ही इस समस्या को वृहद रूप में प्रस्तुत किया है।