श्री राम पटवा जी |
रोज सुबह एक छत पर दो कबूतर मिला करते थे। दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। एक दिन दूर खेत में दोनों कबूतर दाना चुग रहे थे, उसी समय एक तीसरा कबूतर उनके पास आया और बोला, ''मैं अपने साथियों से बिछड़ गया हूं। कृपया आप मेरी मदद करें।''
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटर-गूं किया, ''भटका हुआ अतिथि है.. अतिथि देवो भवः,'' लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहां? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद की मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर।
अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पड़ेगा।
तीसरे दिन 'अतिथि' की भावभीनी विदाई हुई। दोनों मित्र अतिथि कबूतर को दूर तक छोड़ने गए। शाम को जब वे लौटे तो देखा - मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में 'अकल्पनीय' लड़ाई हो रही है। इस दृश्य से दोनों स्तब्ध रह गए। बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद की गुंबद से आया था।
बहुत बढ़िया और शानदार पोस्ट! कबूतर का चित्र बहुत ही प्यारा लगा!
जवाब देंहटाएंशानदार लघुकथा । पटवा जी को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंACHCHHAA SANDESH . THANKS.
जवाब देंहटाएंसामयिक - शिक्षाप्रद कथा ,धन्यवाद । सावधान रहना ही चाहिए ऐसे कबूतरों से देश को ।
जवाब देंहटाएंभई वाह क्या पते की बात है ,सबको समझ लेना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंअगर यह चोरी है, जैसा आपने लिखा है, तो इसकी सजा निर्धारित करने के लिए प्रकाण किसी विशेष न्यायालय में ही विचारित हो सकता है, लेकिन फिलहाल मेरी ओर से तो धन्यवाद स्वीकार कर ही लीजिए.
जवाब देंहटाएं... bahut badhiyaa ... behatreen prasang!!!
जवाब देंहटाएंkabutaron ke bahaane bahut shixha prad aur ek arth-purn sandesh deti rachna.
जवाब देंहटाएंpoonam
padkar bahut aacha laga man ko bahut acchi lagi ye post
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