शिव मंगल सिंह ' सुमन ' |
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
- शिव मंगल सिंह ' सुमन '
फ़ना जब भी हमारे राज़ होंगे,
जवाब देंहटाएंतो जीने के अलग अन्दाज़ होंगे ।
खफ़ा उनसे मैं होना चाहता हूँ,
मग़र डर है कि वो नाराज़ होंगे ।
ज़रा पन्नों को हौले से पलटना,
वहाँ नाज़ुक- से कुछ अल्फ़ाज़ होंगे ।
बहुत महफ़ूज़ है पिंजड़े में चिड़िया,
गगन में तो हज़ारों बाज़ होंगे ।
अभी तो हैं तमंचे उनके हाथों,
वो दिन कब आएगा जब साज़ होंगे ।
’शरद’ के राज़ ही जो खोलता हो ,
तो फ़िर उसके वो क्यों हमराज़ होंगे ।
कुछ भी करो किन्तु कर्तव्य से भागूंगा नहीं '
जवाब देंहटाएंवरदान मागूंगा नहीं ।
सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई।
प्रेरणास्पद ओजस्वी कविता.
जवाब देंहटाएंजद्दोजहद जिंदगी के साथ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसादर!
बहुत सुंदर भावो से भरी अभिव्यक्ति !
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